दुनिया में कई ऐसे अजूबे हैं, जिनके होने का किसी के पास कोई जवाब नहीं। हालांकि आज की पीढ़ी हर वस्तु को साइंस के चश्मे से देखती है और किसी भी रहस्य पर विश्वास नहीं करती। लेकिन अगर हम इतिहास में झांक कर देखें तो, हमें कई ऐसी सरंचनाएं मिलती हैं। जिनसे जुड़े रहस्यों का जवाब साइंस के पास भी मौजूद नहीं है। इसीलिए आज हम आपको कुछ ऐसी ही संरचनाओं से रू-ब-रू कराएंगे, जिन्हें विज्ञान भी समझाने में नाकाम रहा है।
कोणार्क सूर्य मंदिर (Konark Sun Temple)
हिन्दू धर्म में सूर्य देव को सबसे अहम देवों में से एक माना जाता है, क्योंकि ये एक ऐसे देवता हैं जिन्हें देखकर हम उनकी पूजा कर सकते हैं और यही वजह है कि सूर्य देव के मंदिर भारत के कोने-कोने में देखने को जरूर मिलते हैं। लेकिन हम बात कर रहे हैं धरती पर मौजूद सबसे भव्य कोणार्क मंदिर की। ओडिशा के पुरी ज़िले से लगभग 37 किमी की दूरी पर चंद्रभागा के तट पर कोणार्क का सूर्य मंदिर स्थित है। इसकी कल्पना सूर्य के रथ के रूप में की गई है। पौराणिक काल से ही यह मन्दिर सूर्य देव को समर्पित था, जिन्हें स्थानीय लोग ‘बिरंचि-नारायण’ के नाम से जानते थे।
दुनिया भर से लाखों पर्यटक इसको देखने कोणार्क आते हैं। बता दें कि कोणार्क शब्द, कोण और अर्क शब्दों के मेल से बना है। अर्क का अर्थ होता है सूर्य, जबकि कोण का मतलब कोने या किनारे से होता है। यह 13वीं शताब्दी का सूर्य मंदिर है। इस मंदिर के पौराणिक महत्व की अगर बात करें, तो सुनने में आता है कि भगवान कृष्ण और जामवंती का एक पुत्र था जिसका नाम सांब था।
वह दिखने में बेहद सुंदर थे। लेकिन एक बार उनके पिता श्रीकृष्ण नें उन्हें आपत्तिजनक अवस्था में स्त्रियों के साथ देख लिया। जिसके बाद उन्होनें क्रोध में आकर अपने बेटे को बिना कुछ सोचे समझें कुष्ठ रोग का श्राप दे दिया। गुस्सा ठंडा होने पर जब सांब ने उनसे क्षमा मांगी तो भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पुत्र को कोणार्क जाकर सूर्य की अराधना करने का आदेश दिया। सांब ने मित्रवन में चंद्रभागा नदी के सागर संगम पर कोणार्क में, बारह वर्षों तक तपस्या की और सूर्य देव को प्रसन्न किया था।
कहानी और कथाओं में ऐसा कहा जाता है कि कोणार्क सूर्य मंदिर को पहले समुद्र के किनारे बनाया गया था लेकिन धीरे-धीरे समंदर कम होता गया और मंदिर भी समुद्र के किनारे से दूर होता चला गया। इस मंदिर की संरचना की अगर बात करें तो ये इस प्रकार है कि रथ में 12 जोड़े विशाल पहिए लगे हैं और इसे 7 शक्तिशाली घोड़े खींच रहे हैं।
कहा जाता है कि इस मंदिर से जुड़ा एक रहस्य ये है कि एक समय था जब बड़े से बड़ा जहाज इस मंदिर की ओर खिंचा चला आता था। काफी समय तक लोग ये नहीं समझ पाए की ऐसा कैसे होता था। लेकिन विज्ञान के चश्मे से देखने पर हमें इसका असल कारण पता चलता है। दरअसल सूर्य मन्दिर के ऊपरी हिस्से पर 52 टन का चुम्बकीय पत्थर लगा था। जो समुद्र से किसी भी जहाज को अपनी ओर खींच लेता था।
मंदिर में इस पत्थर को हर कठोर परिस्थितियों से बचाने के लिए लगाया गया था। इस चुंबक के चलते ही मंदिर में रखी मूर्ति हवा में तैरती रहती थी और इसके असर से समुद्र से गुजरने वाले जहाज इसकी ओर खिंचे चले आते थे जिससे समुद्री जहाजों को भारी नुकसान होता था। ऐसे में अपने जहाज को बचाने के लिए अंग्रेजों ने इस पत्थर को निकाल लिया और अपने साथ ले गए। जैसे ही चुंबक निकाला गया, मंदिर का संतुलन बिगड़ गया। यह पत्थर एक केन्द्रीय शिला का कार्य कर रहा था, जिससे मंदिर की दीवारों के सभी पत्थर संतुलन में रहते थे। इसके हटने के कारण, मंदिर की दीवारों का संतुलन खो गया और परिणामस्वरूप वे गिर पड़ीं। परन्तु इस घटना का कोई एतिहासिक विवरण नहीं मिलता।
बृहदेश्वर मंदिर (Brihadeeswara Temple)
11वीं सदी के आरंभ में बनाया गया बृहदेश्वर मंदिर एक ऐसा मंदिर है जो तमिलनाडु के तंजावूर (Thanjavur ) में स्थित है। ये मंदिर पूरी तरह से ग्रेनाइट से बना हुआ है। पुराने समय में इस मंदिर का निर्माण चोल शासक प्रथम राजराज चोल ने कराया था और आज इसे यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर का दर्जा प्राप्त है। 13 मंजिल का ये मंदिर पूरी तरह भगवान शिव को समर्पित है। हालांकि देखने में ये मंदिर काफी खूबसूरत है, लेकिन इसकी वास्तुकला में एक रहस्य जुड़ा हुआ है।
इस मंदिर को बनाने में एक लाख तीस हजार टन ग्रेनाइट का इस्तेमाल किया गया था। लेकिन आज तक इस बात से पर्दा नही उठ पाया है कि इतनी भारी मात्रा में ग्रेनाइट आया तो आया कहां से। इस मंदिर के आसपास के किसी भी इलाके में ग्रेनाइट नहीं मिलता। यहां तक की 100 किलोमीटर के दायरे में भी ग्रेनाइट का कोई भंडार नहीं है। साथ ही साथ इसे जोड़ने के लिए ना तो किसी तरह का ग्लू का इस्तेमाल किया गया है और ना ही सीमेंट का। ऐसे में सोचने वाली बात है कि इस मंदिर को किस चीज़ से जोड़ा गया है?
दरअसल मंदिर को पजल्स सिस्टम में जोड़ा गया है। हैरानी की बात है कि ग्रेनाइट के पत्थर पर नक्काशी करना या किसी भी तरह के डिजाइन को उकेरना बहुत कठिन है। ऐसे में चोल राजा ने ग्रेनाइट के पत्थर पर इतनी बारीक नक्काशी को कैसे अन्जाम दिया? ये आज भी एक बड़ा सवाल है।
इस मंदिर के शिखर पर स्वर्णकलश है, जो कि एक पत्थर पर रखा गया है। इस पत्थर का वजन 80 टन है और इसे 216 फीट ऊपर तक पहुंचाया गया है। आज तक ये कोई नहीं जानता कि ये कैसे मुमकिन हुआ। इस मंदिर से जुड़े रहस्यों का जाल यही खत्म नहीं होता क्योंकि इससे जुड़ा एक और रहस्य है।
जैसा कि हम जानते हैं कि धूप मे खड़ी किसी भी वस्तु की छाया (Shadow) सूर्य की स्थिति के अनुसार दिखती है, सूर्य जिस ओर होगा छाया उस के दूसरी ओर ही पड़ेगी। केवल दिन के 12 बजे एक समय होता है, जब सूरज सिर के ऊपर होता है और उस समय छाया नहीं बनती। लेकिन सबसे हैरानी की बात ये है कि इस मंदिर के गुंबद की छाया ज़मीन पर किसी भी समय नहीं बनती। दोपहर में मंदिर के हर हिस्से की छाया जमीन पर दिखती है लेकिन गुंबद की छाया नहीं दिखती। ऐसे में यह एक रहस्य बना हुआ है कि ऐसा कैसे हो सकता है? यहां तक कि वैज्ञानिक भी काफी समय से इस सवाल का जवाब तलाश रहे हैं।
श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर (Sree Padmanabhaswamy Temple)
भारत में आज भी कई मंदिर ऐसे हैं। जिनसे जुड़े रहस्य विज्ञान की सोच से भी परे हैं। इन्ही मंदिरों मे से एक है श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर, जो भारत का सबसे अमीर मंदिर है। ये मंदिर केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम में स्थित है। विष्णु भागवान की अराधना करने वाले भक्तों के लिए ये मंदिर काफी खास है। क्योंकि यहां भगवान विष्णु शेषनाग पर शयन मुद्रा में विराजमान हैं। देखने में ये मंदिर विशाल किले की तरह लगता है और यही वजह है कि ये ऐतिहासिक मंदिर तिरुअनंतपुरम के पर्यटन स्थलों में से एक है।
इस मंदिर का इतिहास, 6वीं सदी से मिलता है। महाभारत के अनुसार श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम इस मंदिर में आए थे और यहां पूजा-अर्चना की थी। ऐसे में माना जाता है कि इस मंदिर को 6वीं शताब्दी में त्रावणकोर के राजाओं ने बनवाया था। जिसका जिक्र 9वीं शताब्दी के ग्रंथों में भी आता है। लेकिन 1733 में त्रावनकोर के राजा मार्तण्ड वर्मा ने इसका पुनर्निर्माण कराया था। यहां भगवान विष्णु का श्रृंगार शुद्ध सोने के भारी भरकम आभूषणों से किया जाता है, हालांकि ये मंदिर अपने आप में खूबसूरती की मिसाल है, लेकिन इस मंदिर से जुड़े कुछ रहस्य भी हैं।
कहा जाता है कि इस मंदिर के भीतर 7 तहखाने हैं। हालांकि ये तहखाने कई सालों तक बंद रहे, लेकिन फिर सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में इन्हें खोला गया। कोर्ट द्वारा जांच में पाया गया कि मंदिर के तहखाने में भारी मात्रा में हीरे और गहने थे। जिनकी कीमत 1 लाख करोड़ से भी ज्यादा थी। जैसे-तैसे मंदिर के 6 तहखानों को तो खोल लिया गया, लेकिन जैसे ही टीम ने मंदिर के सातवें दरवाजे की ओर कदम बढ़ाया, तो दरवाजे पर बने कोबरा सांप के चित्र को देखकर काम रोक दिया गया। क्योंकि दरवाजा किसी भी तरह के लॉक से बंद नहीं है और इसे केवल एक गरुड़ मंत्र की सहायता से ही खोला जा सकता है।
कहते हैं कि इस मंदिर के तहखाने के गेट पर दो सांपों के प्रतिबिंब लगे हुए हैं, जो इस द्वार की रक्षा करते हैं। इस गेट को कोई तपस्वी ‘गरुड़ मंत्र’ बोल कर ही खोल सकता है। अगर उच्चारण सही से नहीं किया गया, तो उस आदमी की मौत हो सकती है। पहले भी कई लोग इस दरवाजे को खोलने की कोशिश कर चुके हैं, लेकिन उन सभी की मौत हो जाती थी । लोगों की मान्यता है कि सातवें दरवाजे के भीतर बड़ा कोबरा सांप है जिसके कई सिर हैं और उसके आसपास कई नाग ने अपना डेरा डाल रखा है।
इसके अलावा मान्यता ये भी है कि मंदिर का सातवां तहखाना सीधे अरब सागर से जुड़ा है। अगर कोई खजाने को हासिल करने के लिए सातवां दरवाजा तोड़ता है या इसमें जबरदस्ती घुसने का प्रयास करता है, तो अंदर मौजूद समंदर का पानी खजाने और आदमी दोनों को बहाकर ले जाएगा। ये पहली बार नहीं था जब मंदिर को खोला गया। बल्कि 1931 में भी इस मंदिर के तहखानें को खोलने का प्रयास किया गया था।
एक अखबार में छपे लेख की मदद से हमें इसके संकेत मिलते हैं। लेखक ऐमिली गिलक्रिस्ट हैच (Emily Gilchrist Hatch) की निगरानी में 6 दिसंबर 1931, दिन रविवार को सुबह 10 बजे के आसपास इस दरवाजे को खोलने की कोशिश की गई थी। ये समय मन्दिर के पंडितों द्वारा चुना गया था। लेखक का कहना है कि जब मंदिर के तहखानों को खोला गया तो, वहां भारी मात्रा में सोने से भरे घड़े रखे हुए थे। कोई नहीं जानता था कि लम्बे समय से इस सोने पर किसी की नजर क्यों नहीं पड़ी। इस लेख से साफ होता है कि अग्रेजों के समय में भी इस मंदिर से भारी मात्रा में सोना निकाला गया था, लेकिन उस समय भी सातवें दरवाजे को नहीं खोला गया था। ऐसे में कोई नही जानता कि सातवें दरवाजे के पीछे क्या रहस्य है।
कोफून, जापान (Kofun, Japan)
स्मारक और मंदिरों के रहस्य के बीच हम एक ऐसी जगह की बात कर रहे हैं जो कि रहस्यमयी तो है ही, साथ ही एक प्राचीन कब्रिस्तान भी है। हम बात कर रहे हैं जापान में स्थित कोफून (kofun) की। जिसे तीसरी शताब्दी के प्रारंभ और 7 वीं शताब्दी के बीच निर्मित किया गया था। बता दें कि कोफून में विशिष्ट रूप से कीहोल के आकार के टीले हैं, जिसमें लोगों को दफनाया जाता था।
बता दें कि ये दुनिया के सबसे बड़े कब्रिस्तानों में से एक है, जो कि कीहोल के आकार का है और दुनिया के सबसे महंगे कब्रिस्तान में से एक है। कोफून कोई आम कब्रिस्तान नहीं है, बल्कि इससे कई रहस्य जुड़े हुए हैं। ये कब्रिस्तान चारों तरफ से जंगल से घिरा हुआ है, जो ऊपर से देखने पर कीहोल जैसा दिखाई देता है।
कोफून रहस्यमयी इसीलिए है, क्योंकि प्राचीन समय में लोगों को दफनाने के लिए इसका निर्माण ठीक उसी तरह किया गया था। जैसे मिस्र के लोगों ने पिरामिड का किया था। हालांकि पुराने समय में इस कब्रिस्तान में किसको दफनाया गया, हमें इस बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। लेकिन जापान के लोगों का मानना है कि यह साइट 5वीं शताब्दी के सम्राट निंटोकू के लिए बनाई गई थी, लेकिन इस बात की पुष्टि कभी नहीं हुई कि उनका या उनके शाही परिवार का शरीर यहां दफनाया गया है।
इस कब्रिस्तान को चाभी के छेद के आकार (key hole shape) में बनाने के पीछे क्या वजह रही होगी, ये आज भी एक रहस्य बना हुआ है। 1995 का एक लेख बताता है कि कोफून के नीचे पत्थर के 26,000 टन स्लेब हो सकते हैं, जिसमें तलवार, गहने, मुकुट, प्रतिमाएं और महान देवता के अवशेष मिल सकते हैं। लेकिन आज तक किसी ने भी कोफून के नीचे क्या है इस बात का पता लगाने की कोशिश नहीं की।
वीरभद्र मंदिर, लेपाक्षी (Veerbhadra Temple, Lepakshi)
लेपाक्षी, आंध्र प्रदेश राज्य के अनंतपुर में स्थित एक छोटा-सा गांव है। जहां के वीरभद्र मंदिर की ख्याति पूरे विश्व में है। ये मंदिर अपने ऐतिहासिक और चमत्कारी महत्व के लिए दुनिया भर में लोकप्रिय रहा है। इस मंदिर के इतिहास पर नज़र डालें तो, ये मंदिर 16वीं शताब्दी में बनाया गया था। लेपाक्षी में स्थित होने के नाते इस मंदिर को लेपाक्षी के नाम से भी जाना जाता है। साथ ही साथ इसे हैंगिंग पिलर टेंपल भी कहा जाता है।
ये मंदिर विजयनगर शैली में बनाया गया था और इसके परिसर में तीन मंदिर हैं, जो भगवान शिव, भगवान विष्णु और भगवान वीरभद्र को समर्पित हैं। इस मंदिर से जुड़ी पौराणिक कथा पर नजर डालें, तो सुनने में आता है कि जब रावण ने सीता को हर लिया था। तब इस मंदिर के ऊपर से गुजरते हुए जटायु ने उन्हें रोकने की कोशिश की थी। जटायु ने सीता माता को बचाने के भरसक प्रयास किए और रावण से युद्ध किया।
इस युद्ध में जब वे घायल होकर वह इसी जगह पर जा गिरे। ऐसे में भगवान राम ने जटायु को घायल अवस्था में यहीं पाया था और उन्हें उठाने का प्रयास किया था। लेपाक्षी एक तेलुगू शब्द है, जिसका हिन्दी अनुवाद उठो पक्षी है। ऐसे में आप समझ सकते हैं कि इस मंदिर का नाम लेपाक्षी क्यों पड़ा? इस मंदिर के पास नंदी बैल की मूर्ति है, जो 27 फीट लंबी और 15 फीट चौड़ी है। ये मूर्ति एक ही पत्थर से बनी है। ये इंडिया में सबसे बड़ी नंदी की मूर्ति है और ऐसी मूर्ति दुनिया में कहीं नहीं है।
लेकिन केवल ये इस मंदिर की खास बात नहीं है। बल्कि इस मंदिर की सबसे खास और रहस्यमयी बात ये है कि इसका एक खंभा हवा में लटका हुआ है। आपको ये शायद सुनने में बेहद अटपटा लगे, लेकिन इस मंदिर में कुल 70 पिलर हैं जिनमें सभी पिलर ज़मीन से जुड़े हुए हैं। लेकिन एक पिलर ऐसा है, जो ज़मीन से जुड़ा हुआ नहीं है। हैरानी की बात ये हैं कि इतने साल बाद भी वो पिलर टस से मस नहीं हुआ है।
आज के इंजीनियर भी इस बात को समझने में फेल हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है? मंदिर के इस पिलर को आकाश स्तंभ नाम से भी जाना जाता है। ये पिलर जमीन से आधा इंच ऊपर है। ऐसे में इस पिलर को देखने के लिए दुनियाभर से लोग आते हैं। ये 16 वीं सदी की इंजीनियरिंग का बेहतरीन नमूना है। कहते हैं कि इस पिलर के नीचे से कुछ निकालने से घर में समृद्धि आती है। लेकिन इसके सीधा खड़े रहने के पीछे राज क्या है ये अग्रेजों ने भी जानने का प्रयास किया था? लेकिन उनके हाथ कुछ नहीं लगा।
दरअसल ब्रिटिश काल के दौरान, एक ब्रिटिश इंजीनियर ने रहस्य को उजागर करने के लिए, खंभे को हिलाने की कोशिश की। जिससे मंदिर का पूरा ढांचा हिलने लगा। इस बात से इंजीनियर इतना डर गया, कि वह अपनी जान बचाने के लिए भाग गया और कभी वापस नहीं आया। इसके अलावा मंदिर में 24 x 14 फीट की वीरभद्र की एक वाल पेंटिंग भी है। यह मंदिर की छत पर बनाई गई भारत की सबसे बड़ी वाल पेंटिंग है। इसके अलावा मंदिर के खंभों और छत पर महाभारत और रामायण की कहानियां चित्रित की गई हैं।
पेट्रा, जॉर्डन (Petra, Jordan)
पेट्रा, दक्षिणी जॉर्डन में एक ऐतिहासिक और पुरातात्विक शहर है। जो पत्थर से तराशी गईं, इमारतों और वाॅटर व्हीकल सिस्टम (Water vehicle system) के लिए प्रसिद्ध है। पेट्रा लाल चोटियों से घिरा हुआ है, जिसकी वजह से इसका रंग लाल है। 1812 में पेट्रा की खोज एक स्विस खोजकर्ता जोहान लुडविग बर्कहार्ट (Johann Ludwig Burckhardt) ने की थी।
कहते हैं कि पेट्रा एक ऐसी सभ्यता के बारे में बताता है, जो कि कहां खो गई, कोई नहीं जानता। माना जाता है कि इस शहर को छठी शताब्दी ईसापूर्व में नबातियों ने अपनी राजधानी के तौर पर स्थापित किया था और इसका निर्माण कार्य लगभग 1,200 ईसा पूर्व में शुरू हुआ था। कहा जाता है कि नैबेटियन्स (Nabataeans), नोमेड्स (Nomads) यानी खानाबदोश लोग थे जो कि रेगिस्तान में रहा करते थे। लेकिन इस शहर की स्थापना से वो लोग काफी सभ्य हुए और उनके पास भारी मात्रा में संपत्ति आ गई।
आज के समय में पेट्रा एक मशहूर पर्यटक स्थल है, जो होर नाम के पर्वत की ढलान पर बना हुआ है और पहाड़ों से घिरे हुई बेसिन (BASIN) में है। आज के समय में ये शहर जॉर्डन के लिए बेहद महत्व रखता है। क्योंकि यह उनके लिए कमाई का एक जरिया है। दुनियाभर से लोग इसे देखने के लिए आते हैं। लेकिन इस एतिहासिक शहर से जुड़ा रहस्य बेहद कम लोग जानते हैं। सोचने वाली बात है कि पेट्रा का इतिहास नैबेटियन्स से जुड़ा हुआ है, लेकिन सदियों से कई अलग-अलग जनजातियों और देशों द्वारा कब्जा लेने की वजह से इसके बारे में काफी कम जाना गया।
आज भी हम नहीं जानते की पेट्रा के इतिहास की शरूआत कब हुई? इस शहर को बसाने वाले नैबेटियन्स लोग कहां से आए थे और वो लोग कौन थे? हालांकि यह माना जाता है कि वे अरब प्रायद्वीप के दक्षिण से आए प्रवासी थे, लेकिन इस बात के सच होने के सबूत नहीं मिलते। नैबेटियन्स ने इस शहर को कैसे बसाया और उन्होंने ने इतनी भव्य इमारतों को बनाने के लिए किस तकनीक का इस्तेमाल किया? इस बारे में हमारे पास कोई जानकारी नहीं है।
कहते हैं कि इसकी सरंचना को देखकर लगता है कि पेट्रा आधा बनाया गया था और इसके स्मारक, पत्थर की चट्टान और पहाड़ों को काटकर बनाये गये थे। जो सूरज के उगते और डूबते समय रंगों के पूरे स्पेक्ट्रम को दिखाते हैं। पुरातत्त्वविद् (Archaeologists) आज भी इस सवाल का जवाब तलाशते हैं, कि उन्होंने इतनी सुंदर संरचनाओं को विशाल चट्टानों के किनारे पर क्यों उकेरा? आज भी इस शहर के केवल 15% भाग की खोज की गई है और 85% अभी भी भूमिगत है। 363 ईस्वी में आए एक भूकंप से लगभग आधा शहर जमीदोज़ हो गया था। आज भी खुदाई के माध्यम से इस शहर को ढूंढने का काम चल रहा है।
बालबेक, लेबनान (Baalbek, Lebanon)
भारत के मंदिर की बात तो खूब हो गई लेकिन लेबनान में एक ऐसे मंदिर के खंडहर मिलते हैं, जिनसे जुड़े रहस्य आज भी वैज्ञानिकों के लिए हैरानी का विषय बने हुए हैं। हम बात कर रहे हैं लेबनान के बालबेक मंदिर की, जिसके परिसर में दो मंदिर है। इनका नाम है बैकस मंदिर (bacchus temple) और जुपिटर मंदिर (jupitar temple)। बैकस मंदिर को इम्पीरियल रोमन आर्किटेक्चर (Imperial Roman Architecture) का एक पुरातात्विक और कलात्मक साइट माना जाता है और यही वजह है कि इसे 1984 में यूनेस्को (UNESCO) द्वारा विश्व धरोहर का दर्जा मिला था।
बता दें कि सदियों से इस मंदिर को बचाकर रखा गया है। ये रोमन मंदिरों के पुराने खंडहरों में से एक है, लेकिन ये किस शताब्दी में बनाया गया, इसको लेकर भी कई विवाद चले आ रहे हैं। बता दें कि ये मंदिर रोमन साम्राज्य के सबसे रहस्यमय खंडहरों में से एक है। बालबेक मंदिर के परिसर में दो मंदिर बने हैं और दोनों काफी रहस्यमयी है। इसके काम्पलेक्स में बने टेम्पल ऑफ जुपिटर की अगर बात करें तो, इसे दुनिया का सबसे बड़ा रोमन टेम्पल कहा जाता है। लेकिन इस टेम्पल को डिजाइन किसने किया और इसका निर्माण (construction) कैसे हुआ? ये हम नहीं जानते।
दलीलें दी जाती हैं कि टेम्पल ऑफ जुपिटर को बनाने का कार्य 16 वीं शताब्दी में शुरू किया गया था और 60 AD तक इसे बनाकर खत्म किया गया। बता दें जुपिटर का मंदिर एक बड़े प्लेटफाॅर्म पर बनाया गया है। ये प्लेटफाॅर्म 23 फीट ऊंचा है, जिसमें कई स्तंभ खड़े किए गए हैं। शायद आपको हैरानी हो लेकिन इस मंदिर में बने ऊंचे ब्लॉक को तैयार करने के लिए भारी मात्रा में निर्माण कार्य किया गया था। कहा जाता है कि रोमन साम्राज्य में जुपिटर देवता को समर्पित ये सबसे बड़ा मंदिर था। इस मंदिर के स्तम्भ (PILLAR) लगभग 2.5 मीटर के डायमीटर के साथ 30 मीटर ऊंचे हैं। इसके भव्य निर्माण को देखकर लगता है कि, इस विशाल मंदिर परिसर को बनाने में तीन शताब्दियों का समय लगा होगा।
इसी तरह बैकस मंदिर की अगर बात करें तो, ये मंदिर बैकस देवता को समर्पित था। जिन्हें वाइन और ग्रेप हार्वेस्ट का देवता माना जाता है। बता दें कि बैकस ग्रीक देवता डायोनिसियस का रोमन नाम है। इस मंदिर के भीतर बनी शेर, बैल और चील की नक्काशी को इतनी अच्छी तरह से संरक्षित किया गया है कि, ये आज भी अच्छी स्थिति में है। माना जाता है कि मंदिर का निर्माण 150 A.D. और 250 A.D के बीच किया गया था और इस मंदिर को रोमन बादशाह एंटोनाइनस पायस (Roman Emperor Antoninus Pius) द्वारा बनाया गया था। लेकिन इसे बनाने वाले वास्तुकार( ARCHITECT) के बारे में आज भी कोई जानकारी नहीं मिलती।
ऐसी मान्यता है कि एंटोनिनस पायस चाहते थे कि, बालबेक क्षेत्र के लोग रोमन शासन को बहुत सारा सम्मान दें, इसलिए उन्होंने मंदिर के प्रवेश द्वार के पूर्वी किनारे पर दो टॉवर्स का भी निर्माण किया था। ताकि स्थानीय लोग रोम शासन को आसानी से पहचान सकें। हम नहीं जानते कि इतने भव्य मंदिर को किसने बनाया और उस समय बिना तकनीक के इतने भव्य मंदिर का निर्माण कैसे हुआ। जैसा कि हमने बताया कि बालबेक के मंदिरों का निर्माण एक बड़े प्लैटफार्म पर हुआ है। ऐसे में सवाल आता है कि इतने बड़े पत्थरों को वहां तक बिना साधन के कैसे ले जाया गया? हालांकि आज ये मंदिर किसी खंडहर से कम नहीं, लेकिन इन्हें बेहतर तरीके से संरक्षित किया गया है।
कैलाश मंदिर, एलोरा (Kailasha Temple , Ellora)
मंदिर तो आपने कई देखें होंगे लेकिन एलोरा के प्राचीन शिव मंदिर की बात ही अलग है। भगवान शिव को समर्पित ये मंदिर केवल अपनी वास्तुकला की वजह से चर्चा का विषय नहीं रहता, बल्कि इसके रहस्य वैज्ञानिकों को भी हैरान करने वाले हैं। इस मंदिर के रहस्य से विज्ञान भी टक्कर नहीं लेता।
सातवीं सदी में बने इस मंदिर का आर्किटेक्चर (architecture), पुरातत्त्वविद् (archaeologist) को ये सोचने पर मजबूर कर देता है कि, उस जमाने में ऐसे मंदिर बने तो बने कैसे? ये मंदिर महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित है। इस अनूठे मंदिर की ऊंचाई 90 फीट है। ये 276 फीट लम्बा, 154 फीट चौड़ा है। मंदिर में विशाल और भव्य नक्काशी है। कहते हैं कि कैलाश मंदिर ‘विरुपाक्ष मंदिर’ से प्रेरित होकर राष्ट्रकूट वंश के शासन के दौरान बनाया गया था। यूं तो अजंता में कई बौद्ध गुफाएं और कई हिन्दू मंदिर मौजूद हैं, लेकिन कैलाश मंदिर एलोरा की गुफाओं में सबसे खास है।
कहते हैं भगवान शिव का ये दो मंजिला मंदिर एक ठोस चट्टान को काटकर बनाया गया है। साथ ही साथ मंदिर को एक ही पत्थर की शिला से बनाया गया था और इसे बनाने में दो या तीन साल नहीं बल्कि 150 साल का समय लगा था। इस मंदिर को बनाने के लिए करीब 7,000 मजदूरों ने मिलकर काम किया, ताकि भगवान शिव के इस भव्य मन्दिर का निर्माण हो सके। कैलाश मंदिर देखने में जितना खूबसूरत है, उससे ज्यादा खूबसूरत इस मंदिर में किया गया काम है।
आमतौर पर हम किसी भी इमारत को बनाने के लिए उसका निर्माण नीचे से शुरू करते हैं और फिर ऊपरी हिस्से को बनाते हैं। भवन और मंदिर का निर्माण करने के लिए पत्थरों के टुकड़ों को एक के ऊपर एक जमाते हुए बनाया जाता है। लेकिन इस मंदिर को बनाने में एकदम अलग तकनीक अपनाई गई है। इसे ऊपर से नीचे की ओर बनाया गया है। यानी आसान शब्दों में कहें तो, इस मंदिर को बनाने के लिए एक पहाड़ के ऊपरी हिस्से को तराश कर पहले मंदिर का ऊपरी हिस्सा बनाया गया, फिर धीरे-धीरे पहाड़ को ऊपर से नीचे काटते हुए बाकि हिस्सों का भी निर्माण किया गया।
इसे आप ऐसे समझ सकते हैं कि, जैसे मूर्ति बनाने वाला पहले एक पत्थर को चुनता है और फिर उसे तराशता हुआ मूर्ति का निर्माण करता है। ठीक उसी तरह इस मंदिर को भी बनाया गया था। आज के समय में ऐसा मंदिर बनाना उतना भी आसान नहीं है। लेकिन सवाल आता है कि उस समय ऐसा मंदिर कैसे बनाया गया? पहले के समय में ना तो 3D डिजाईन सॉफ्टवेयर, CAD सॉफ्टवेयर और छोटे मॉडल्स होते थे और ना ही कोई इंजीनियर। ऐसे में इतने भव्य मंदिर का निर्माण विज्ञान के लिए एक पहेली है।
हम आज इन सभी तकनीक का इस्तेमाल करने के बाद भी ऐसा भव्य मंदिर नही बना सकते। इस मन्दिर की प्लानिंग पर एक नजर डालें तो पाते हैं कि, पत्थर को खोखला करके मंदिर, खम्बे और द्वार की नक्काशी की गई। इसके अलावा मंदिर को बाढ़ और बारिश से बचाने के लिए पानी को संचित करने का सिस्टम और नालियां भी बनाई गईं। साथ ही साथ मंदिर के छज्जे में खूबसूरत डिजाइन को भी बनाया गया। इतना सब कुछ बिना किसी प्लानिंग और तकनीक के बनाना संभव नहीं है। ऐसे मे ये मंदिर पुरातत्त्वविदों (Archaeologists) को हैरानी में डालता है।
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